पीपल

पीत गगन, तपते अंगारे गिरें निरंतर ग्रीष्मकाल में,
ऐसी जलती गर्मी में ऊपर आया पीपल का पौधा
संसार में नया नवेला, अनबूझा अज्ञान भयंकर
गर्मी से जब प्यास लगी तो करता है पानी की मांग

घर में दस इंसान देखकर खुश, अनंत इसकी प्रसन्नता
पर्ण हिलाकर नाच नाच के करे खुशी का ये इज़हार
मेरे हाथ नहीं तो क्या, इनके तो पूरे बीस हैं
पानी की बूंदें? यहाँ धारा प्रवाह बन जाएगा

दो, चार, आठ, सोलह, दिन बीतते जाते हैं
स्तर संसार में निष्ठुरता के ऐसे बढ़ते जाते हैं
दो, चार, आठ, सोलह, दिन बीतते जाते हैं
पीपल के ये हरे तने अब भूरे बनते जाते हैं

निरंतर उपेक्षित, दुत्कारा, मारा रोज ये जाता है
पानी के स्थान पर जूते की मिट्टी ये रोज़ खाता है
द्वेष घृणा में भिड़ते इंसानों के घर में शीशे की किल्लत
घर की नींव तो पीपल का ये पेड़ तोड़ कर जाता है

ऐसे घर में फलित ये पीपल, फिर कैसे बच जाता है?

नज़र में आना छोड़ दिया, पलटकर वार नहीं किया
मुँह बंद, ये धीमी गति से भूरा बनता चला गया
एक समय के बाद लंबाई लाख छुपाओ, कहाँ छुपेगी?
पर अब तो ये ढीट ऐसा, अब कौन उखाड़ के जाएगा
काटो इसे दस बार, ग्यारहवीं बार वहीं से आएगा
हवा नहीं हो, तब भी पत्ते हिला हिला कर नाचेगा
घर अब इसके लिए छोटा, ये खुद घर बन जाएगा
उन दस के अलावा पूरे कस्बे में ये पूजा जाएगा
इस सृष्टि में ऐसी गर्मी के मारे हैं और भी पौधे
बरगद हो या आम, सबको छाँव देता जाएगा
निरीह कीट पशु पक्षी, इंसानों को भी ये पालेगा
देवों का ये द्वार, यहाँ जो मांगो देता जाएगा

पानी का मोहताज नहीं ये, इसकी जड़ें इससे भी लंबी
तोड़ धरातल सरस्वती का ये जलपान कर आएगा
वो न मिले तो वर्षा भी है इसको भेंट रूप स्वीकार
वरना सूखा पेड़ भी माँ धरती के काम ही आता है
धनेश उल्लुओं तोतों का ये घर बनकर रह जाएगा



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