नियम बनाम आध्यात्म : मिथ्याचार

अंग्रेज़ी के ऐसे वाक्य कई रूपों में लोगों ने पढ़े होंगे, खासकर जिम जैसी जगहों में : "Keep pushing yourself", "Hard work is the only path to success" आदि। धार्मिक गुरु आदि में विश्वास रखने वाले लोग भी हैं जिनमें प्राय: मोह-माया-त्याग-तपस्या जैसी धाराओं पर चलने वाले विचार मिलते हैं। इनका लक्ष्य अधिकतर हितैषी ही होता है, और सुनकर लगता भी है कि सही बात है; भाई मेहनत के बिना क्या मिलेगा।

फिर क्या; अपन निकल पड़ते हैं अनंत मेहनत की एक सतत यात्रा पर। मन की नहीं सुननी, मन तो भटकाएगा ही। "Push Push Push" सुरू में जिम का trainer बोलेगा, फिर अंदर से एक आवाज़ उस trainer की जगह ले लेगी। अंदर से कई आवाज़ें आती हैं; कभी छोले भटूरे खाने की, कभी एक दिन आराम करने की, लेकिम भाई मन की नहीं सुन सकते। "ये मन बड़ा चंचल है, दिन रात भटकता है"। साधना वाले भी कई होते हैं। अंदर से हंटर चलता है; अमुक समय पर अमुक दिशा में ३० डिग्री के कोण पर सीधा पैर उल्टे पैर के ऊपर, हाथ तने हुए ज्ञान मुद्रा में, और कपालभाति की ट्रेन चालू।

पढ़ते पढ़ते अब तक कइयों को पता लग गया होगा कि मैं खुद एक समय तक इस बीमारी के वश में रहा हूँ। बिना अनुभव के अंदर की स्व-केंद्रित क्रूरता को कोई जान नहीं सकता। खूब ऐसी तैसी कराई अपनी; मन ही मन हंटरबाज़ियाँ करीं और बाहर भी निकालीं.. अंदर जो चल रहा है वो बाहर भी आना ही है। काम करने का कोई और तरीका पता ही नहीं था। अधूरा ज्ञान था तो लगता था सही यही है; लोग तो लोग, धर्म के लोग भी यही कहते हैं। फिर पढ़ाई की, तो पता लगा कि बात अधूरी, और किस हद तक अधूरी है ये।

और बात पल्ले कहाँ से पड़ी? श्रीमद्भगवद्गीता से।

मिथ्याचार
आगे बढ़ने से पहले, सबसे पहले उस श्लोक का उल्लेख कर दूँ जिसके ज्ञान की बात यहाँ कर रहा हूँ :- 

    गीता, अध्याय ३

"मन मन भावे मूंड हिलावे" मेरे घर में अक्सर कहावत चलती थी ये। बच्चा मौसी के घर जाए, वहाँ पे नाश्ते में नमकीन रखी हो, अंदर से मन करे पूरी कटोरी मार जाने का पर लिहाज का धर्म आपको एक-दो चम्मच पर संतोष करने को कहता है; उस स्थिति के बारे में कहती है ये कहावत। हर कोई ऐसा नहीं होता, लेकिन अधिकतर को समाजरूपी बनने के लिए ऐसा बनाया जाता है। आप हम में से अधिकतर का समाजरूप किसी न किसी पहलू में बाहर आ जाएगा.. बाहर पहननेवाले कपड़े के प्रकार से लेकर बड़ों के सामने चुप रहने की आदत सीखते सीखते ही सब बड़े हुए हैं। समस्या समाजरूप में नहीं है; तब तक नहीं जब तक आप अपने खिलाफ न जाने लगें।

हालांकि गीता पूरी पढ़ें तो बेहतर है; आपको अपने लिए कुछ न कुछ मिल जाएगा, पर अभी के लिए ये श्लोक काफी है। असली में शायद कुछ और भी कहता होगा ये श्लोक; मैं वो इंसान नहीं जो कवि के मन के हज़ार उद्गार सोचकर ले आए। मेरी व्याख्या ये है : "मन मन भावे मूंड हिलावे" करने वाली आदत का नाम मिथ्याचार (मिथ्या-फरेब-झूठ का आचार-आचरण-व्यवहार करना) है, और ऐसे लोग ढोंगी-दंभी-झूठी प्रकृति के कहे गए हैं। जब तक व्यवहार से ये नहीं निकालेंगे, श्रेष्ठता की ओर नहीं जाएंगे।

इस अकेले श्लोक के इतने मायने हैं कि सही से अनुसरण करने पर आपकी ज़िंदगी बदल जाएगी। आधुनिक जीवन में खासकर, जहाँ समाजी मान-मुनव्वल के चक्कर में मानव का अपना मन इतना दबा जा रहा है कि खुद पता नहीं, वहाँ ये श्लोक आपको बताता है कि कोई काम करने के लिए खुद पर हंटर चलाना कोई तरीका नहीं। पर आसानी से समझना होता तो लेख क्यों पढ़ते? प्रवचन भी करेंगे। अगले भाग में उसपर।

मिथ्याचार के आयाम : विभाजित मानव
अपनी बात मैं बाद में करूंगा; अपने आप को मैं सामान्य नहीं मानता। पहले आते हैं सामान्य मिथ्याचार पर। ये आपके आसपास चप्पे चप्पे पर मिलेगा। इसके समाज में अनेक अच्छे नाम भी हैं : "औपचारिकता", "अनुशासन", "लोग क्या कहेंगे" आदि। ऐसी तमाम चीज़ें जो कि आपको अपने अंदर से आई पहली आवाज़ को पकड़ने से रोकें। दूसरी तीसरी आवाज़ें अक्सर वहीं से आती हैं। भले डर से आए, अहंकार से आए, छवि-प्रेम या लक्ष्य-प्रेम से आए, लेकिन अंत में दूसरी-तीसरी आवाज़ों की प्रकृति पहली को दबाना ही होता है। फिर इंसान मन मारता है और वो काम करता है जो उसकी प्रकृति-संस्कार है ही नहीं। कोई कोई मेरे जैसा होता है जो कि दूसरी-तीसरी को ही सच मानने लग जाता है, उसके अपने झमेले हैं। 

ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि ये भले जिम में हो रहा हो या योग में, ये सब एक ही तरीके की चीज़ें हैं। अंदर से इच्छा कुछ है, बाहर आपके चेतन मन की इच्छा कुछ और, और अंत में आप अंदर की इच्छा को मारकर किसी चीज़ के लिए किसी तरह का बलिदान दे रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में मन को अक्सर गालियाँ भी पड़ती हैं वो अलग। और इस सब में आप अपने अंदर के एक भाग को रोज दुत्कारते हैं। मेरे जैसे कुछ होते हैं जो इन आवाज़ों को अलग अलग व्यक्तित्व मानने लगते हैं और उसकी ज़िम्मेदारी या तो ले नहीं पाते, या लेना छोड़ देते हैं। अंदर से इंसान तीन-चार भाग होता है और आप एकरूपता से दूर होते चले जाते हैं।

कोई चीज़ अच्छी बुरी या सही गलत नहीं है। हरेक को मन की करने को तुरंत आज़ादी दे दें तो पाकिस्तान अगले दिन हमको उड़ा दे। लेकिन हम आप जैसों के लिए तीन-चार भाग रहने का कोई मतलब नहीं। जितने फाड़ करेंगे, मन में उतने विरोधाभास होंगे; लड़ाइयाँ होंगी। और एक भाग खुश होगा तो उसके खिलाफ खड़े चार दुखी होंगे। सम्पूर्ण प्रसन्नता का दूर दूर तक कहीं अस्तित्व नहीं होगा, और अगर आप खुशी के लिए जी रहे हैं तो आपको कभी न कभी यू टर्न लेना पड़ेगा।

मिथ्याचार का पुरोधा
कुछ लोग कहेंगे कि तीन-चार भाग में से एक भाग पकड़ेंगे, बाकी खत्म करेंगे। अफसोस पर ये सामान्यतः काम नहीं करता। स्वागत है मेरी अपनी अनुभव कथा में।

मन को गुलाबजामुन देखकर खाने की इच्छा होना प्रकृति है। लडृके का लड़की को देखकर "मोहित" हो जाना प्रकृति है। इस भाग को खत्म करना चाहते हैं तो बड़ी अच्छी बात है, पर प्रायः खत्म करने का लोग मतलब समझते हैं कि झाड़ू मार दो साफ हो जाएगा। चाँटे मारो बच्चा खुद समझ जाएगा। ऐसे तरीकों से चीज़े दबती तो हैं, पर खत्म नहीं होतीं। मैंने खूब कोशिश की है आदर्श समाज का आईना बनने की, इच्छाएँ मारने की, पर इच्छाएँ तब तक ही दबेंगी जब तक उन्हें मौका नहीं मिलता खुद को व्यक्त करने का। 

मीठे को देखकर डाइट करने वाले के हाथ में अगर कोई मिठाई देंगे तो दो तरह के लोग मिलेंगे; एक वो जिनका अंदर से मन ही नहीं करेगा, और दूसरे वो जिनका मन करेगा, पर वो मना करेंगे। ऊपर से मना करने वालों में भी दो तरह के होते हैं; एक जिनको पता है कि उनका मन है, और दूसरे जो कि नकारने की इस हद तक जा चुके होते हैं कि उनको उनके मन की ही आवाज़ नहीं मालूम होती। उनको समझाना सबसे कठिन होता है कि वो क्या कर रहे हैं।

इससे होगा क्या? मन को दबाने की एक ऐसी स्थिति भी होती है जब आप कहीं का गुस्सा कहीं निकाल रहे होते हैं क्योंकि पहले नहीं निकाला, और आपको पता नहीं होता है कि ये बीमारी है। गुस्से, या किसी भी इच्छा को दबाएंगे तो वो इंतज़ार करके निकलेगा, या तो किसी निर्दोष पर, या फिर बीमारी बनकर अपने शरीर पर। धीमे धीमे आप प्रतिक्रियाओं की एक चलती फिरती प्रयोगशाला बन जाएंगे जहाँ आपके हाथ में कुछ भी नहीं होगा, और न आपको कुछ पता लगेगा कि आपके अंदर से अचानक से इतना गुस्सा, या इतनी हवस कहाँ से और क्यों आई। 

ऐसे मे खुशी कहाँ से मिलेगी? हर भाग खत्म करके।

एकरूपता की ओर
ये सब अंदरूनी वाद-विवाद का स्रोत अनेक भाग ही हैं, और इनका हल भी सारे भाग हटाना है, पर आराम से।

बड़े आराम से XD




कुछ लोग जो कि "आधुनिक" धर्मगुरु जैसे ओशो, सद्गुरु आदि को सुनते हैं, वो समझ रहे होंगे कि मैं क्या कह रहा हूँ इधर। आध्यात्म की किसी भी शाखा का लक्ष्य मोक्ष ही होता है; मरकर मुक्ति वाला नहीं, दुनिया में रहकर करने वाला। उसके लिए ज़रूरी होता है कि मन के विकार निकाले जाएँ; आदतें निकाली जाएँ और उसको हर तरह के बंधन से मुक्त किया जाए। उसके लिए पहले बंधन पता होने चाहिए, और बंदा अगर इस हद तक मन मार ले कि उसको खुद का अता पता न हो तो कैसे चलेगा? ओशो के शब्दों में, अगर इच्छा को दबाएंगे तो उस इच्छा के नौकर बन जाएंगे।

इतने साल तक वही करने के बाद मैंने सुलह करी अपने अंदर। मन नहीं करता तो नहीं करता। डाइट भी करेंगे, और छोले भटूरे भी खाएंगे। रोज योग भी करेंगे, और मन करेगा तो चार दिन छुट्टी भी मारेंगे। किसी दिन चार घंटा मंत्रजाप करेंगे, फिर दस दिन भगवान का नाम भी नहीं लेंगे। #NoPressure वाली मानसिकता.. अंदर से कुछ आए तो करना है। भले ही गुस्सा करने का मन करे, लेकिन करना है। रुकना नहीं है। 100% मैं भी नहीं कर पाता; जितना दिखता है उससे बहुत कठिन है ये, लेकिन प्रयास जारी है।

इससे दो चीज़ें होती हैं। पहला आप मन को रोकने की चिंता से ऊपर आते हैं। और जब मन के खिलाफ होना बंद करेंगे तभी मन को समझ पाएंगे। उसके बिना सौ बार हाथ पाँव मार लो, कुछ नहीं होना। मुझे ये करने के बाद पता लगा कि मैं अपने व्यक्तित्व के, प्रकृति के कितने भाग दबाए बैठा हूँ। अंदर के भाव आपके नफरत से हटकर दोस्ती में बदलने लगेंगे। और सबसे जरूरी, आप जिन भागों से दूरी बनाने के चक्कर में थे, उनसे तार जुड़ने शुरू होंगे।

उसके बाद होगा असली कमाल। आपको चीज़ों के कारण समझ आएंगे। अंदर का मन शिकायती से हटकर जासूसी बनेगा। जब सब कुछ अपना है तो शिकायत किससे? आपको अगर यूँ ही कभी गुस्सा आता हो अगर, तो उसका कारण समझ आएगा। धीमे धीमे होगा, पर मज़ा आएगा। अपने में खो जाना भी एक अलग अनुभव है। और इसका अगला चरण आएगा सामंजस्य, जब आप खुद उस स्तर पर आ जाएंगे कि कोई मुँह में गुलाबजामुन ठूँस भी दे तो खाने का मन न करे।

अंत में लक्ष्य वही है। एकरूपता। मिथ्याचार से दूर। अंदर का मन है तो वही करना और वही होना, कुछ अलग बनने की कोशिश नहीं करना, क्योंकि वो हो ही नहीं सकता, खुशी से तो नहीं। आपको खुद से पता लग जाएगा कि शांति से मन के साथ काम किए जा सकते हैं। हंटर चलाना ज़रूरी नहीं हर बात पर।

अगर आप पहले से ही इसी राह पर हैं तो आपको बधाई। मेरे जैसे कई और हैं जो ये गलतियाँ कर रहे हैं, अगर एक की भी बुद्धि बदल जाए तो अच्छा रहेगा। थोड़ा सा जंग लगा हुआ है लिखाई में; भूल चूक के लिए क्षमा। बाकी गप्प लड़ानी है तो खुलकर लड़ाइये, गाली देनी है तो गाली दीजिए, तारीफ आए तो उसमें भी मत हिचकिए। मिथ्याचार नहीं बस :D

टिप्पणियाँ

  1. मुझे नहीं पता मैं क्या खोजते, क्या पढ़ते- पढ़ते यहाँ पहुंच गयी.. पर आपका आभार l कभी-कभी जब जीवन हमे ऐसे दो राहे पर ले आता है, जहां एक तरफ होती हैं वो चीजें जो "सही" हैं , और दूसरी तरफ होती हैं वो चीजें जो हमारा मन चाहता है , जैसे आपने kaha ,तो क्या एक चुनना ज़रूरी है ? isn't there a way to concile the two to truly free our mind from the shackles imposed on it?Or is it always a balancing act?
    मैं आशा करती हूं कि आप मेरे सवाल को समझ पाये होंगे ।
    और एक अनुरोध भी है, आपकी लेखन शैली अलग है, it keeps the reader engaged, आप और लिखा कीजिये l

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    1. ये मुझे आज दिखी। लिखने की मनोस्थिति कभी कभी आती है... अभी ये हफ्ता कविताओं का रहने वाला है। निजी डायरी में से माल खुरच खुरचकर निकाला जाएगा और पाठकों को पढ़ाया जाएगा :D अनुरोध में छिपी तारीफ का धन्यवाद :)

      बात सवाल की... बिना परिस्थिति जाने(बाहरी और अंदरूनी) के सवाल का जवाब दे पाना असंभव ही है। इतना जरूर बता सकता हूँ कि मुझे अगर परिस्थिति पता हो तो मैं जवाब कैसे दूंगा:

      "सही", और मनचाही, ये हमारे मनगढ़ंत विभाजन हैं। दोनों मन के ही हैं। जैसा पढ़के समझ आ रहा है मुझे, "सही" यहाँ समाज वाला सही लग रहा है और मन में कोई भाव है जो उसके खिलाफ है। और ऊपर बोला ही... सही गलत कुछ नहीं होता।

      भावों को टकराव तो चलता रहेगा जब तक पूर्ण एकरूपता नहीं आ जाती। साधुजनों को छोड़कर मुझे नहीं लगता कि वो कोई कर सकता है। ना ही इसमें balancing कर सकते। एक मन बोले कि गुलाबजामुन खाओ, दूसरा मना करे, तो होगा तो एक ही।

      ऐसे विरोधाभासों से जब मेरा सामना होता है तो मैं विचार के भाव देखता हूँ। विचार कभी सही गलत नहीं हो सकता, पर भाव जरूर कुछ ऐसे होते हैं जिनमें से कुछ को आप अशक्त रखना चाहते हैं। सड़क किनारे बैठा एक पागल आके मुँह पे चाँटा मार दे, तो शरीर अचानक हिलेगा और क्रोध आएगा। वो बोलेगा कि लगाओ दो वापिस। दया-सहानुभूति-प्रेम(they are different, just for simplicity) बोलेगी कि जाने दो, पागल है। सही कुछ भी नहीं है, पर जो आप चुनते हैं, वो आपका व्यक्तित्व चरितार्थ करता है।

      मैं किसी का व्यक्तित्व नहीं चुन सकता। वो आपकी अपनी परवरिश से आएगा... आपको जीवन में जिस भाव को शक्ति देनी है उसको चुनिए और अपना व्यक्तित्व ऐसे खड़ा करते जाइये।

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