धुंध अंधाधुंध धुँए में,
दिखाई नहीं देता जब रस्ता,
आँखें जब हो जाती अंधी,
कान भी हो जाते बहरे,
अंतहीन अज्ञात के भय से,
पाँवों को हो जाता लकवा,
मन मस्तिष्क पूर्ण लाचार।
उठ भी जाओ हिम्मत से तो,
दुनिया के बेरहम थपेड़े,
धम्म गिरा कर जाते हैं।
पानी से नमकीन धूल का
स्वाद चखा कर जाते हैं।
माया के इस नाटक पर
नतमस्तक कर के जाते हैं।
तूफानों के बीच बैठना,
तम यमराज के दर्शन लेना,
उठ-चल-गिर-पड़
रेंग भले ही, चलते रहते जाना है।
काले बादल के छँटने का,
इंतज़ार तो सब करते हैं,
आज सूर्य बनने की बारी,
बादल का जलपान करेंगे,
तूफानों को शांत करेंगे,
तेज हवा का अंधड़ तोड़,
आज तेज फैलाना है।
।। चलते रहते जाना है ।।
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