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चित्र स्त्रोत: प्रेरक प्रसंग - दृढ आत्मविश्वास और कठिन परिश्रम से कुछ भी संभव है ! |
१९ फरवरी, २०११।
मेरे बड़े भैया की शादी थी। वैसे तो मैंने इससे काफी छोटे बहाने के बल पर स्कूल की छुट्टी मारी हुई थी, पर उस दिन तो मैं स्कूल जाने को एकदम तैयार बैठा था। कारण था सालाना "मौखिक गणित"/"Mental Maths" प्रतियोगिता का अंतिम चरण, जो कि राज्य स्तर पर आयोजित होता था। चार साल से मैं इस प्रतियोगिता में भाग ले रहा था; ये पाँचवी बार था। हर बार अपने आसपास के स्कूलों के स्तर पर, फिर क्षेत्र स्तर, फिर जिला, खण्ड और आखिर में राज्य स्तर पर चुनकर आता था, पर आखिर में हमारी टोली को द्वितीय/तृतीय स्थान से ही संतोष करना पड़ता था। चार साल बेवजह हारने का मलाल, एक अधूरी आस, और उसको पाने की उमंग लिए मैं स्कूल की तरफ चल पड़ा।
एक-दो घंटे बाद मैं प्रतियोगिता के आयोजन स्थल पर पहुँचा। बाकी टोलीवाले भी पहुँच गए थे; सबसे दुआ-सलाम हुई। हर बातचीत की शुरूआती बेवजह बकवास के बाद सर्वसम्मति से एक चीज़ तय हुई, वो ये कि अगर जीतना है तो कुछ अलग करना होगा। एक घंटे के गहन चिंतन-मनन के बाद हमने एकता की भावना पर आधारित रणनीति बनाई। फैसला हुआ कि हमारे पास जब भी कोई सवाल आएगा तो हम सब आपस में चर्चा करेंगे, और आखिर में एक ही बंदा जवाब देगा हम सबकी तरफ से। आत्मविश्वास की कमी के कारण इस काम को अपने हाथ में लेने के लिए मैंने ज़रा भी कोशिश नहीं की। अनुभव को तरजीह देते हुए तय हुआ कि पुष्पेन्द्र(हमारी टोली में मेरे अलावा अकेला दूसरा बंदा जो कि हर वर्ष अंतिम चरण तक आता था) हमारी ओर से जवाब देगा।
प्रतियोगिता भी शुरू हुई। चार साल के वही ढाक के तीन पात के बाद आखिरकार किस्मत हमारा साथ दे रही थी। हम से पहले जिस टोली की बारी आती थी वो टोली थोड़ी कमज़ोर थी, तो उसके सारे सवाल हमारे पास आ रहे थे। मौके का पूरा फायदा लेते हुए हम भी सारे सवाल हल किये दे रहे थे, और पुष्पेन्द्र इत्मीनान से जवाब दिए जा रहा था। तीसरे और आखिरी चरण में थोड़ी सी दिक्कत हुई, पर आखिर में हम ही विजयी हुए। पाँच साल में पहली बार हमें विजय मिली, तो मैं अवाक हो गया। मन में कोई भावना नहीं थी; एकदम रिक्त, पर कहानी तो अभी शुरू हुई थी। अभी तो और एक चीज़ बची थी जो कि पाँच साल में पहली बार होनी थी।
दर्शक दीर्घा में दिल्ली शिक्षा विभाग के कोई बड़े अधिकारी बैठे थे तब; शायद दिल्ली सरकार के शिक्षा सचिव थे। पुष्पेन्द्र के ऐसे धड़ाधड़ सही जवाबों से वो बड़े खुश हुए, और घोषणा हुई कि पुष्पेन्द्र के उत्कृष्ट प्रदर्शन को देखते हुए निदेशक जी द्वारा उसको ५०० रुपये अतिरिक्त दिए जाएँगे(प्रथम आने के लिए २१०० रुपये का पुरस्कार था)। पूरा सभागार तालियों से गूँज उठा, और पुष्पेन्द्र के चेहरे की ख़ुशी तो देखते ही बनती थी। पाँच सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि अतिरिक्त पुरस्कार दिया गया हो तो खुश होना तो बनता था। हम सब पुष्पेन्द्र को बधाई देने लगे, पर जहाँ सब खुश थे वहीं मुझे ये बात खटकने लगी।
मैंने सोचा था कि सबको पुरस्कार मिलेगा, पर ऐसे अलग से केवल पुष्पेन्द्र को दिया तो मुझे बुरा लगने लगा। लगे भी क्यों नहीं, भई मेहनत तो मेरी भी थी(और मेरी नज़र में तो मेरी काफी ज़्यादा थी :P)। जैसा कि ऐसी स्थिति में अमूमन होता है, मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। "ये क्या मजाक है यार; ये तो गलत है एकदम", "यार पुष्पेन्द्र को हमको भी देना चाहिए", "ये डायरेक्टर भी कैसा सा है, सबको देना चाहिए था", "इससे तो मैं ही जवाब दे देता, धत् तेरे की"; मन में ये सब घूमने लगा। विश्वासघात सा लग रहा था। मन में सवाल आ रहा था कि ऐसी मेहनत का फायदा क्या जो कि बाहर दिखे ही नहीं?
खैर, अब जो हुआ सो हुआ। होनी के आगे हार सी मानकर मैंने अपना सा मन लेकर रह गया। शायद मेरे अध्यापक ने भी पूछा था कि पाँच साल बाद जीता हूँ तब भी मैं खुश क्यों नहीं हूँ? जवाब दिया कि ज्यादा ही ख़ुशी आ गई है, संभल नहीं रही। पुरस्कार वितरण हुआ, सबने ताली बजाई, पर मेरे चेहरे पर ख़ुशी नहीं थी बिल्कुल। मैं अब भी उसी उलझन में था कि मेरी मेहनत का फायदा क्या हुआ? ज़िन्दगी के कुछ कठोर सत्यों से छोटी ही उम्र में सामने के लिए मैं शायद तैयार नहीं था। शायद इसीलिए भगवान ने भी अपना पैगाम मुझे भेज ही दिया।
समारोह ख़त्म हो गया था, तो लगभग सब दर्शक वापस चले गए थे। सभागार लगभग खाली ही था सिवाय हमारे, हमारे अध्यापकों, और कुछ उसी स्कूल के बच्चों के। हम अपनी जगह पर ही बैठे हुए थे। बीच बीच में किसी विषय पर बात छिड़ जाती, थोड़ा हँसी ठठ्ठा होता और फिर वापिस से चुप हो जाते। तभी पीछे से किसी ने मुझे कंधे पर ऊँगली से खटखटाया। मुड़के देखा तो उसी स्कूल की दो लड़कियाँ थीं। मैं कुछ पूछता उससे पहले ही उन्होंने ऐसा सवाल कर दिया जो कि बरसों से मुझे याद है, और शायद हमेशा रहेगा।
"जवाब आप ही सोच रहे थे ना?"
दिन में दूसरी बार था जबकि मैं फिर अवाक हो गया था। दो पल को तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या, पर फिर सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मैंने बोला कि सब मिलकर सोच रहे थे। वो लड़कियाँ तो चली गईं, और यहाँ मैं फिर अचरज में पड़ गया। लगभग असंभव ही था कि १०-१२ पंक्ति दूर दर्शकों में बैठा हुआ कोई इतना सब देख ले और उसके बाद मुझ तक केवल यही पूछने भी आये। जितना सोचूँ, उतनी ही ख़ुशी बढ़ी जाए।
निकलने का वक्त भी आया। वहाँ से अपने स्कूल पहुँचे, तो बारहवीं वालों का विदाई समारोह का खाना चल रहा था। प्रधानाचार्या महाजन मैम से शाबाशी मिली; छोले भठूरे में हाथ भी मारा पर मेरा ध्यान कहीं और ही था। शरीर मौसी के घर को पैदल चल रहा था, और मन हवा में उड़ रहा था। निदेशक के देखने से शायद मुझे थोड़ा पैसा ज्यादा मिल जाता, पर वो लड़कियाँ मुझे जीवन भर के लिए एक सीख देके गईं। सीख ये कि मेहनत पुरस्कार के लिए नहीं करनी होती; दिखाने के लिए नहीं करनी होती, और ठीक से करो तो खुद ही दिख जाती है।
--------- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। ----------
--------- मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ ----------
Men will be men!!
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