आयाम : मातृभाषा और मैं (संस्मरण)

ये कब की बात है ये तो मुझे याद नहीं, बस इतना याद है कि तब मैं अपने कॉलेज के द्वितीय वर्ष में था। मुझे भूत चढ़ा था कि भारत घूमना है और चूँकि घर दिल्ली में है और कॉलेज खड़गपुर में, तो सोचा था कि घर आते जाते इधर-उधर घूमता हुआ जाया करूँगा। सपने तो बहुत बड़े बड़े बसा लिए थे मन में, गुवाहाटी और नागपुर तक की सोच ली थी, पर थोड़ी सुरक्षित शुरुआत के लिए मैंने सोचा कि पहले कोलकाता-जयपुर रेलमार्ग से होते हुए कोटा की तरफ जाऊँगा जैसा कि हर घूमने की योजना के साथ होता है, इस वाली की भी घर पे बता देने के कारण मिट्टी पलीद हो गई। आखिर में तय हुआ कि मैं टूंडला उतर जाऊँगा और वहाँ से किसी एक्सप्रेस ट्रेन में चढ़कर दिल्ली आ जाऊँगा ३-४ घंटे का ही रास्ता था तो सोचा था कि दिक्कत नहीं होगा, और जैसा कि होता ही है, ठीक उल्टा हुआ

टूंडला पर मैं करीब रात के २ बजे उतरा। इन्टरनेट पर पता लगाने के बाद मैं भागकर १५(15) मिनट बाद आने वाली फरक्का एक्सप्रेस के लिए एक जनरल टिकट लेकर आया घर के पैसे पे हमेशा ऐशो-आराम से स्लीपर-एसी कोच में सफ़र करने के कारण मुझे जरा भी अंदाज़ा नहीं था कि एक आम एक्सप्रेस का डिब्बा कैसा होता है। खैर, ट्रेन आने की घोषणा हुई, ट्रेन भी आई, और जितनी भी नींद मेरी बची-कुची थी वो उस डब्बे को देख के खुल गई। 

स्त्रोत: Hey irctc!You should have told me before!
ट्रेन के डिब्बे के दरवाज़े पर पसरे हुए अधमरे लोगों को मैंने देखा तो बस देखता ही रह गया। होश संभाला तो मन में आया कि अगली पकड़ लूँ, पर दिमाग ने प्रतिकार किया कि अगली में भीड़ बढ़नी ही है। ट्रेन रुकनी भी बस २ मिनट ही थी। भगदड़ थोड़ी थम गई थी, तो मैं अन्दर घुसने की कोशिश करने लगा। जमीन पर सोए हुए लोग अब तक आधे जाग चुके थे और घुसने वालों को न घुसने देने की हर संभव कोशिश कर रहे थे, पर मैंने अपनी लम्बी टांगों को सफलतापूर्वक प्रयोग में लाते हुए एक पैर दरवाज़े के पास और एक थोड़ा अन्दर को रख लिया, और अपने एक सामान वाले बैग को एक पैर और दीवार के बीच हवा में टिका लिया। इतने में ट्रेन चल दी मैंने एक तरफ तो राहत की साँस ली, पर दूसरी तरफ ये भी मन में आ रहा था कि ये साढ़े ३ घंटे का सफ़र कटेगा कैसे

ये सब सोच ही रहा था कि मुझे मेरी ओर एक आवाज़ और उससे संबंधित कुछ "प्रवचन" सुनाई दिए। आवाज़ की दिशा में देखा तो पता चला कि हवा से नीचे खिसकते हुए वो बैग एक औरत के हाथ पर जा टिका है। कुछ और लोग प्रवचनों में साथ देने लगे; उनको दिख रहा था कि मुझे आदत नहीं है जनरल में सफ़र करने की तो मजे ले रहे थे। खैर, वहाँ कहीं जगह नहीं मिली तो मैं शौचालय के पास जाके खड़ा हो गया क्योंकि वो आने जाने वालों के रास्ते में नहीं आ रहा था। अंत में जगह-जगह प्रवचन सुनने के बाद मैंने एक आदमी को बोला कि मेरे बैग को रखके उसके ऊपर बैठ जाए। बैग से पीछा छूटा तो मैंने पाया कि मैं लगभग पूरा ही शौचालय में घुस चुका हूँ। वहाँ भी अन्दर एक परिवार था पूरा, एक माँ और उसके २ बेटे। एक छोटा था और माँ की गोद में सो रहा था दूसरा, जो लगभग मेरी ही उम्र का था मुझे सहानुभूति से देख रहा था। बाहर ३-४ लोगों के प्रवचन सुनने के बाद जब पहली बार सहानुभूति दिखी तो मैं भी शौचालय की बदबू भूल गया और वहीं खड़ा होकर अन्दर की टूटी खिड़की से हवा खाने लगा। उसी लड़के ने मुझे बैग से पीछा छुड़ाने की सलाह दी थी, वरना मैं तो उसको भी अन्दर रख रहा था। मैं उससे बात करने लगा

-कहाँ जा रहे हो?
-रोहतक। आप?
-दिल्ली

बातें करते समय कई बार ऐसा होता है कि आप जानते हैं कि केवल इतनी बात करके छोड़ नहीं सकते क्योंकि बहुत समय का साथ बाकी है, लेकिन आगे क्या बात करें दिमाग में नहीं आता खैर, पूरे १० सेकेण्ड दिमाग लगाने के बाद एक और सवाल मिला जो कि मैंने तुरंत दाग दिया

-घर जा रहे हो?
-ना। दुकान है वहाँ एक। भैया वहीं काम करते थे, तो मुझे भी वहीं लगा लिया
-अच्छा। 

जवाब और उसके कपड़े देखकर मैंने सोचा कि ज़्यादातर गरीब घरों की तरह उसको भी बचपन में ही पढ़ाई छुड़वाकर काम पर भेज दिया गया होगा। ऐसे किसी से कभी मैंने आमने-सामने बात नहीं की थी; सोचा कि चलो जानता हूँ कि आखिर ऐसे घरों में हालात कैसे होते हैं, तो और खोदने लगा

-पढ़ाई कहाँ तक है तुम्हारी?
-दसवीं तक
-(हल्का सा अचंभित होकर) तो आगे क्यों नहीं की?
-कोशिश की थी मैंने, पर हो नहीं पाई

एक तो दसवीं तक पढ़ाई, ऊपर से अपनी मर्ज़ी से आगे पढ़ना भी चाहता था। जवाब मैंने ऐसा तो नहीं ही सोचा था; अब सवाल आया कि आगे क्यों नहीं की। कपड़े को होशियारी से जोड़ना शायद मैं खुद ही सीख गया था, तो सोचा कि फेल हुआ होगा। फेल हुआ तो था, पर वैसे नहीं जैसे मैंने सोचा था

-मतलब?
-गरीब परिवार से हूँ, तब भी बापू ने सरकारी स्कूल में पढ़ाई करवाई। वो तो चाहते थे कि पढ़-लिख के अच्छा पैसा कमाऊँ। 
-फिर?
-इंटर कॉलेज(दसवीं कक्षा के बराबर) के पहले तक हिंदी माध्यम में पढ़ता था। उसके बाद बापू ने किसी तरह एक अच्छे से कॉलेज में दाखिला दिलवाया। 

शक्ल से लग रहा था उसकी कि मैंने कोई ज़ख्म कुरेद दिया है वो बोलता रहा

-कॉलेज हमारे लिए कुछ ज्यादा अच्छा था। अंग्रेजी में पढ़ाई होती थी वहाँ। मैं और भैया दोनों कोशिश करते थे बहुत पर कुछ समझ नहीं पाते थे। फिर काम नहीं कर पाते थे तो मैडम मारती थी। २-३ साल ऐसा चला। फिर बापू को लगा कि फायदा नहीं है। पहले भैया को वहाँ से निकालके एक दुकान पे भेज दिया। बाद में देखा कि मैं भी कुछ नहीं कर पा रहा, तो भैया ने बात करके मुझे भी अपने साथ लगा लिया। 

मैं अब कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था। अंग्रेज़ी से मेरा बैर जरूर बचपन का रहा है, पर ऐसा भी होता है मुझे बिलकुल अंदाज़ा नहीं था। कैसा लग रहा था और क्यों लग रहा था मुझे पता नहीं शायद जो महसूस हो रहा था वो एक साथ ही क्रोध, उदासी, सहानुभूति, प्रसन्नता की भावनाओं से मिलकर बनी कोई अनुभूति थी; क्रोध उस पक्षपात का जो मेरी भाषा के साथ होता है, उदासी जो किसी के सपने टूटते हुए देखने पर होती है, सहानुभूति जो उस तरह का कुछ अपने साथ होने पर ही आ पाती है और प्रसन्नता जो अपने लक्ष्य के सही मालूम होने पर होती है। इतना सब मैं संभाल ही रहा था कि उसने मुझसे पूछा...

-भैया आप कहाँ जा रहे हैं?
-(होश संभालते हुए) हँ? हाँ। घर जा रहा हूँ। कॉलेज में छुट्टी है
-अच्छा। कहाँ पढ़ते हो?
-(इस आशंका से कि उसको शायद न पता हो) आईआईटी खड़गपुर
-ये कहाँ है?
-उड़ीसा-बंगाल बॉर्डर पर
-दिल्ली में नहीं मिला क्या भैया?
-(हँसते हुए, और ये सोचते हुए कि ये आईआईटी जानता है) ना भाई
-आप किस्मतवाले हैं। अच्छे कॉलेज में पढ़ रहे हैं। मैं तो पढ़ नहीं पाया, आप अच्छे से पढ़ना
-(मुस्कुराकर सिर हाँ में हिलाते हुए) हम्म

याद नहीं है मुझे, पर उस मुस्कराहट में मेरा दुःख भी झलक ही गया होगा। 

इसके बाद बीच में कुछ छिटपुट बातें हुईं बीच बीच में, पर आगे का कुछ समय हमने हवा खाते हुए और शौचालय में से लोगों के लिए अन्दर बाहर होते ही गुज़ारे। थोड़ी देर बाद हम बाहर ही खड़े हो गए। एक आदमी ने उसको अपने पास बुला लिया, और वो फिर दरवाज़े के पास जाके ही खड़ा हो गया। शायद वही उसके बापू रहे होंगे। बाद का समय लोगों के लिए इधर-उधर जगह छोड़ने में और एक-दूसरे को देखकर हल्का सा मुस्कुरा देने में ही निकल गया। फिर सुबह हुई, ट्रेन दिल्ली पहुँची, मैंने उससे विदा लेने की सोची तो देखा कि वो सो गया है, तो ऐसे ही बैग उठाकर स्टेशन से बाहर को चल दिया। पापा लेने आये थे; मैं स्कूटर पे सवार हुआ और निकल गया

रास्ते में मैं यही सोचता रहा मेरी किस्मत हमेशा से ही अच्छी रही है। भले ही कटोरी का कितना भी रायता फैला लूँ, फिर भी न जाने कैसे पर कटोरी में से सोने की कोई अंगूठी निकल ही आती है। कहानी भले ही कितनी भी दुःख भरी क्यों न रही हो, मुझे तब भी मेरे लक्ष्य के लिए एक और प्रेरणा मिल गई और प्रेरणा ज़रूरी होती है, क्योंकि कारण भले ही कितना भी अच्छा और सही क्यों न हो, लक्ष्य को प्राप्त करने की इच्छा प्रेरणा से ही बनी रहती है, वही मंजिल तक पहुँचने से पहले आपको रुकने नहीं देती, वहाँ तक पहुँचाकर ही दम लेती है



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