पहचानने से इनकार (PSI)



PSI(संज्ञा) : नज़रों का एक ऐसा खेल जिसका उपयोग आसपास के समाज से बचने के लिए किया जाता है। 
PSI(क्रिया) : समाज से बचने के लिए इसका उपयोग। उदाहरण(सच्चा) : भाई अब ऐसे करेगा? २ दिन से देख रहा हूँ PSI मारके जा रहा है।

...३० मीटर की दूरी, एक सीधा रास्ता, पैदल मैं, और सामने से पैदल वो। मैंने उसको देखा, उसने भी देखा ही होगा। हाथ कब हिलाऊँ, अभी तो २० मीटर और हैं। चेहरा तो अब भी दूसरी तरफ है, देखा भी है उसने? १० मीटर ही हैं अब, पास आऊंगा थोड़ा तो Hi बोल दूंगा। यार इसकी तो नज़रें अब भी वहीं हैं। नहीं देखने वाली ये। बेशरमी दिखाऊँ क्या? बोलूं?...

और अफसोस...



PSI कहते हैं इसे। नाम भले न सुना हो, हुआ जरूर होगा।

२०१३ में जब मैं खड़गपुर गया था तो मेरी शब्दावली में सबसे पहले जुड़ने वाले शब्दों में से एक PSI था। मुझे तब समझ नहीं आया था ये; एक Senior से पूछा भी था। "थोड़ा Time रुक, सब समझ जाएगा"। समझा भी, और अव्वल दर्जे का अंतर्मुखी(Introvert) होने के नाते किया भी। ज्यादातर जानबूझकर नहीं करता था; अपनी धुन सी में रहता था तो हो जाता था। 

तब से अब तक कहानी काफी बदल गई है। College वाला स्वभाव अब ऐसा छुप गया है कि लोग अंतर्मुखी(Introvert) मानने से ही इनकार कर देते हैं। अब बहिर्मुखी(Extrovert) बन गए हैं, और PSI देने वाले की जगह PSI पाने वाले बन गए हैं। अब पता लगा है कि PSI पाने वाला भी बेचारा उतनी ही अजीब स्थिति में होता है जितना देने वाला। 

PSI देने वाले की नज़र से

३० मीटर की दूरी, एक सीधा रास्ता, पैदल मैं, और सामने से पैदल वो। मैंने उसको देखा, उसने भी देखा ही होगा। इसको मैं याद तो होऊंगा ना? बात भी नहीं होती है, उस दिन बस उसके Birthday में थोड़ी हुई थी। थोड़ा देखता हूँ कि किधर देख रही है। देखा इसने मुझे, पहचानती तो है शायद। दूसरी तरफ मुंह कर लिया, इसको बात नहीं ही करनी होगी। मैं भी नहीं देख रहा अब। लेकिन तब तक करूँ क्या? फोन निकालता हूँ। 
अब तो गई भी। क्या सोच रही होगी ये? बात कर ही लेनी थी। लेकिन पहचाना...
(सोच बनती गई, दिमाग चलता गया...)

मैं खुद PSI देने वालों में से रहा हूँ, तो इतना कह सकता हूँ कि PSI देना अच्छा तो नहीं ही लगता है। झगड़े कहासुनी का चक्कर हो तो बात अलग है, लेकिन जब मैं ये हरकत करता था तो उसके पीछे ज्यादातर डर, शर्मीलापन या फिर अजीब लगना ही कारण रहता था। अंतर्मुखी(Introvert) हो इंसान तो बात करने में ताकत लगती है, और बात चालू करने में तो और ज़्यादा। उतनी मेहनत करने से अच्छा नज़रअंदाज करना लगता है, और गलती से इंसान आलसी निकला फिर तो जय राम जी की।

लेकिन अब तस्वीर दूसरी ओर से देखता हूँ तो वही गलतफ़हमी का मामला नज़र आता है। जनता की सोच के हिसाब से अगर खुद को बहिर्मुखी(Extrovert) मानूं तो भी अजीब तो लगता ही है ऐसे में; एक हाथ से ताली तो नहीं ही बजती। हो सकता है लोगों की याद्दाश्त कम होती हो, ध्यान कहीं और हो, हो सकता है बात करने का मन ही न हो (शरलॉक होम्स प्रशंसक हो तो इतने कारण सोचना तो बनता है), लेकिन जैसा कि एक प्रसिद्ध सिद्धांत(Occam's razor) कहता है, किसी समस्या का सबसे सरल हल ही अक्सर सही होता है।

जनता कहिन

आसपास की जनता से भी बात हुई इस विषय पर। ज्यादातर को जब पहली कुछ पंक्तियाँ पढ़ाईं तो कई तरह के भाव दिखे; एक मंद मुस्कराहट, कुछ याद करती हुई हंसी से लेकर "अबे हाँ बे ये तो होता है यार" तक। शुरुआती तहकीकात में ये भी पता लगा कि लड़के इससे ज्यादा पीड़ित हैं, खासकर तब जबकि सामने'वाली' हो। एक लड़का होने के नाते मैं सभी पीड़ित लड़कों से सहानुभूति प्रकट करता हूँ,  और कहना चाहता हूँ कि इसका इलाज आते ही मैं एक लेख अलग से लिखकर डालूंगा। तब तक किसी को इलाज मिले तो मुझे भी बताए।

किसी को अगर ये सब सोचना बंद करना हो और अच्छा भी महसूस करना हो, उनके लिए मेरे पास फंडे हैं सोचने के। इंसान की पहुंच उसकी सोच तक ही होती है। आसपास के बारे में सोचते रहेंगे तो आसपास तक ही सिमट कर रह जाएंगे; उठिए इस सब से ऊपर, कुछ नहीं रखा है इसमें। 


जिनको इस सोच से आपत्ति हो; अंगूर खट्टे हैं। करना पड़ता है तसल्ली के लिए, समझिये थोड़ा। 

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