महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर आज ऑफिस की छुट्टी है, और इसी कारण मुझे पकड़ लिया गया गाड़ी को सर्विसिंग के लिए देके आने को। देने जा रहा था तब मंदिर में लगी हुई कतारें दिखीं; किसी के हाथों में फूल; किसी के में बेल का फल तो कोई जल का लोटा लिए हुए। वापिस वहीं से आ रहा था तब रास्ते में दो भंडारे होते हुए दिखे। अबके भी कतारें थीं, लेकिन लोग दूसरे थे, और हाथ से कुछ देने के बजाये अब लेके जा रहे थे।
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धर्म से अब तक मेरा जितना सामना हुआ है, उससे यही लगा है कि भक्ति अपने आप में एक अलग भावना है। हर मंदिर में कुछ मदहोश लोग आपको मिल जाएंगे जो एक अलग ही दुनिया में होते हैं। विजय कौशल एक धर्मगुरु/बाबा(/जो मर्ज़ी कहलो) हैं यहाँ, उनके दो-तीन कीर्तनों में बचपन में गया था। वहाँ बस एक भजन की देर है, दसियों लोग नाचने को तैयार हो जाते हैं। संगीत की एक अहम भूमिका जरूर होती है, लेकिन बिना ढोलक की थाप के भी शायद कई नाच जाएं। मैं खुद कॉलेज के पहले साल में नाचा था एक कीर्तन में। उस संघ से भले ही अब नफरत हो, लेकिन उस अनुभव को मैं नकार नहीं सकता।
एक असीमित प्रसन्नता, एक संतुष्टि भरा आत्मसमर्पण, एक अच्छा सा लगने वाला छोटापन, शान्ति। ये चार भावनाएं मिला के बोलूं तो भी शायद भक्ति में से कुछ बचा रह जाए। अजीब रिश्ता है मेरा भक्ति से। ऐसे तो भावना-प्रधान इन्सान हूँ मैं, बात-बात पे रो पड़ने वालों में से, लेकिन भक्ति की भावना आसानी से महसूस नहीं कर पाता। स्वभाव से मैं शायद नास्तिक ही कहलाऊँ, लेकिन भक्ति मुझे नास्तिकता के आड़े आते हुए कभी नहीं लगी। किसी भावना को कभी कोई बना नहीं सकता, पर धर्म के निर्माताओं का मैं व्यक्तिगत रूप से भक्ति को खोजने के लिए तो अभिनन्दन कर ही सकता हूँ।
धर्म भी एक अलग ही चीज़ बनाई है किसी ने। ब्राह्मण हूँ तो (हिन्दू)धर्म-ज्योतिष से काफी आमना-सामना होता रहा है, अच्छे-बुरे रीति रिवाज़ों से पाला पड़ता रहता है, और आज के सोशल मीडिया के ज़माने में हर फालतू बात पे गाली भी पड़ती रहती है ब्राह्मणों को, तो उससे भी जूझना पड़ता है। जूझते हैं तो सोचते भी हैं, और सोचने में तो महारत है ही। धर्म भी शायद कुछ लोगों को एक प्रोजेक्ट की तरह मिला होगा.....
बाकी अगले भाग में जल्द ही : धर्म : भाग २(मिशन अनुशासन) (परिकल्पना) / Religion : Part 2(Mission Discipline) (Fiction)
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